(प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी काशी विश्वनाथ धाम का उद्घाटन सोमवार यानी कल करेंगे। ये उद्घाटन “दिव्य काशी, भव्य काशी” पूरे देश में ५१,००० स्थानों से प्रसारित किया जाएगा। हेमंत शर्मा की कलम उस विराट अतीत को जीवंत करती है जो कभी था और जो अब एक बार फिर साकार होगा।)
काशी विश्वनाथ कॉरिडोर अपने आततायी अतीत को सुधारने का संकल्प है।यानि सदियों की आध्यात्मिक विरासत का कायाकल्प।इस कॉरिडोर के बहाने इतिहास ने नई करवट ली है। इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि एक हज़ार साल के अन्याय का प्रतिकार बिना किसी ध्वन्स के हुआ है।सिर्फ़ सृजन के ज़रिए। इसका स्वागत होना चाहिए।ये कॉरिडोर बाबा विश्वनाथ मंदिर के मुक्ति का उत्सव है।काशी मुक्ति का शहर है। मुक्ति की कामना में लोग यहाँ खींचे चले आते है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इसी मुक्ति कामी चेतना ने काशी विश्वनाथ मंदिर के एक हज़ार साल पुराने गौरव को लौटाया है।
एक हज़ार साल से काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वंस का जो दंश भोग रहा था, काशी विश्वनाथ कॉरिडोर ने उससे मुक्ति दिलायी है। ग्यारहवीं शताब्दी तक इस मंदिर की शक्ल ऐसी ही थी, जैसी आज बनायी गयी है।काशी विश्वनाथ सिर्फ़ एक मंदिर नहीं बल्कि मंदिरों का संकुल था।मंदिर परिसर के चारों तरफ़ कॉरिडोर की शक्ल में कक्ष थे, जहाँ संस्कृत, तंत्र और आध्यात्म की शिक्षा दी जाती थी।विद्यार्थी यहीं टिक कर धर्म और दर्शन की शिक्षा लेते थे।सत्रहवीं शताब्दी में औरंगजेब ने इस मंदिर संकुल को तोडने का आदेश इसलिए दिया कि उसका बाग़ी भाई दारा शिकोह यहाँ संस्कृत पढ़ता था।दारा शिकोह ने औरंगजेब और इस्लाम से बग़ावत की थी।इसलिए औरंगजेब ने 18 अप्रैल 1669 को मंदिर तोडने का फ़रमान जारी किया। फ़ारसी में लिखे इस फ़रमान में दर्ज था कि “वहाँ मूर्ख पंडित, रद्दी किताबों से दुष्ट विद्या पढ़ाते हैं।”
औरंगजेब ने मंदिर तुड़वा कर एक मस्जिद भी तामीर करा दी।जिसे बाद में ज्ञानवापी मस्जिद कहा गया।ज्ञानवापी यानी ज्ञान का कुँआ। उसके बाद कई चरणों में काशीवासियों, होल्कर और सिन्धिया सरदारों की मदद से मंदिर बनता बिगड़ता रहा।लेकिन उसकी वह भव्यता नहीं लौटी।औरंगजेब के जाने बाद मंदिर के पुनर्निर्माण का संघर्ष जारी रहा। 1752 से लेकर 1780 तक मराठा सरदार दत्ता जी सिन्धिया और मल्हारराव होल्कर ने मंदिर की मुक्ति के प्रयास किए। पर 1777 और 80 के बीच इंदौर की महारानी अहिल्या बाई होल्कर को सफलता मिली। अहिल्याबाई ने मंदिर तो बनवा दिया पर वह उसका पुराना वैभव और गौरव नहीं लौटा पाई। 1836 में महाराजा रणजीत सिंह ने इसके शिखर को स्वर्ण मंडित कराया।पर भगवान शंकर मंदिरों के ‘थर्मस फ़्लास्क’ में सांस लेते रहे। संकुल के दूसरे मंदिरों पर पुजारियों का क़ब्ज़ा हो गया और धीरे-धीरे मंदिर परिसर ऐसी बस्ती में बदल गया जिसके घरों में प्राचीन मंदिर क़ैद हो गए। कॉरिडोर को बनवा प्रधानमंत्री ने अहिल्या बाई के सपनों को विस्तार दिया।परिसर के प्राचीन मंदिर जो चुरा कर घरों में क़ैद कर लिए गए थे उन्हें मुक्त कराया।
इतिहास के अपने प्रस्थान बिन्दु होते है। काशी विश्वनाथ मंदिर के निर्माण का यह तीसरा प्रस्थान बिन्दु है। जब भी इतिहास में इसका ज़िक्र आएगा, मंदिर का पुनरुद्धार करने वाली अहिल्या बाई होल्कर, इसके शिखर को स्वर्ण मंडित करने वाले महाराजा रणजीत सिंह और मंदिर को उसकी ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक आभा लौटाने वाले नरेन्द्र मोदी का नाम सामने होगा।
आज जिस काशी विश्वनाथ मंदिर संकुल या कॉरिडोर का निर्माण हुआ है। वह एक हज़ार साल से विध्वंस की विभीषिका झेल रहा था। शास्त्र बताते हैं कि मनुष्य की उत्पत्ति से पहले काशी की उत्पत्ति हुई थी। शिव आदिदेवता हैं और यह शिव की नगरी है।कह सकते है कि हिन्दू धर्म की जड़े अयोध्या, मथुरा से ज़्यादा काशी विश्वनाथ में गहरी हैं। राम का व्यक्तित्व मर्यादित है। कृष्ण का उन्मुक्त और शिव असीमित व्यक्तित्व के स्वामी हैं। वे आदि हैं और अंत भी। बाकी सब देव हैं। वे महादेव।इसलिए काशी विश्वनाथ से जनमानस का जुड़ाव ज़्यादा है।
सबसे पहले इस मंदिर के टूटने का उल्लेख 1034 में मिलता है।11वीं सदी में राजा हरिश्चंद्र ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। 1194 में मोहम्मद गोरी ने इसे लूटने के बाद तोड़ा। स्थानीय लोगों ने इसे फिर बनवाया। 1447 में जौनपुर के सुल्तान ने इसे फिर से तोड़ा।अकबर की सर्वसमावेशी नीति के चलते टोडरमल ने 1585 में फिर इसका जीर्णोद्धार करवाया। टूटने बनने का सिलसिला जारी रहा। इस बार काशी विश्वनाथ के खलनायक शाहजहाँ थे।1632 में शाहजहाँ ने इसे तोड़ने का आदेश दे। सेना भेज दी। संघर्ष हुआ। काशी के लोगों की एक जुटता के आगे मुग़ल सेना को वापस लौटना पड़ा। हालाँकि इस संघर्ष में काशी के 63 मंदिर शहीद हुए।काशी विश्वनाथ मंदिर से औरंगजेब के ग़ुस्से की एक वजह यह थी यह परिसर संस्कृत शिक्षा बड़ा केन्द्र था और दाराशिकोह यहाँ संस्कृत पढ़ता था। साक़ी मुस्तइद खाँ की किताब ‘मासिर -ए-आलमगीरी’ के मुताबिक़ 16 जिलकदा हिजरी- 1079 यानी 18 अप्रैल 1669 को एक फ़रमान जारी कर औरंगजेब ने मंदिर तोड़ने का आदेश दिया।इस बार एक दीवार को छोड़ जो आज भी मौजूद है, समूचा मंदिर गिरा दिया गया। 15 रब- उल-आख़िर यानी 2 सितम्बर 1669 को बादशाह को खबर दी गयी कि मंदिर न सिर्फ़ गिरा दिया है, बल्कि उसकी जगह मस्जिद की तामीर करा दी गयी है।पर साथ ही परिसर के हिस्से में पंडितों ने मंदिर का अस्तित्व बनाए रखा।लेकिन मंदिर उपेक्षित रहा मस्जिद बड़ी और मंदिर छोटा था।
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परम्परा और इतिहास में यह मंदिर कालजयी सांस्कृतिक परंपराओं और उच्चतम आध्यात्मिक मूल्यों का जीवंत प्रतीक रहा है। यही समृद्ध परम्परा यहाँ देश भर के संतों को खींच कर लाती रही।जैन आए हुद् आए, आदि शंकराचार्य, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, गोस्वामी तुलसीदास, महर्षि दयानंद सरस्वती, गुरुनानक सब यहॉं आए। सबकी आंखे यहीं खुली।
फ़रवरी 1916 में महात्मा गांधी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के स्थापना सम्मेलन में गए। बीएचयू में अपने संबोधन से एक दिन पहले गांधी काशी विश्वनाथ मंदिर गए। मंदिर की गंदगी ने उन्हें उद्वेलित किया। मंदिर की दशा की दिलचस्प तुलना उन्होंने भारतीय समाज से की। बीएचयू के अपने संबोधन में उन्होंने कहा, ‘इस महान मंदिर में कोई अजनबी आए, तो हिंदुओं के बारे में उसकी क्या सोच होगी और तब जो वह हमारी निंदा करेगा, क्या वह जायज नहीं होगी?, क्या इस मंदिर की हालत हमारे चरित्र को प्रतिबिंबित नहीं करती? एक हिंदू होने के नाते, मैं जो महसूस करता हूं वही कह रहा हूं। अगर हमारे मंदिरों की हालत आदर्श नहीं है, तो फिर अपने स्वशासन के मॉडल को हम कैसे गलतियों से बचा पाएंगे? जब अपनी खुशी से या बाध्य होकर अंग्रेज इस देश से चले जाएंगे, तो इसकी क्या गारंटी है कि हमारे मंदिर एकाएक पवित्रता, स्वच्छता और शांति के प्रतिरूप बन जाएंगे?’
महात्मा गांधी ने काशी विश्वनाथ मंदिर पर चिंता जताते जिन तत्वों की ज़रूरत मंदिर के लिए बताई और स्वच्छता, पवित्रता व शान्ति का केन्द्र बनाने का जो सपना देखा था, वो उनके जन्म के 150 साल में पूरा हुआ है। उन्हें इससे बेहतर ढंग से कैसे याद किया जा सकता है!! काशी विश्वनाथ कॉरिडोर हमारी धार्मिक परम्परा की प्रतिकृति है।इस देश के महापुरुषों के सपनो का स्मारक है। ये स्वप्न इस देश की महान आध्यत्मिक परंपरा की ज़मीन पर देखे गए। इनका इस भव्य रूप में साकार होना कल्पना से भी परे है। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर इस देश की आध्यात्मिक चेतना का कॉरिडोर बन गया है।अपनी पूरी दिव्यता और भव्यता के साथ।
हेमंत शर्मा हिंदी पत्रकारिता में रोचकता और बौद्धिकता का अदभुत संगम है।अगर इनको पढ़ने की लत लग गयी, तो बाक़ी कई छूट जाएँगी।इनको पढ़ना हिंदी भाषियों को मिट्टी से जोड़े रखता हैं।फ़िलहाल TV9 चैनलमें न्यूज़निर्देशक के रूप में कार्यरत हैं।